भोपाल- मैत्रेय बुद्ध महाविहार,गोल्डन स्टेच्यू ऑफ बुद्धा चूना भट्टी द्वारा संत रविदास जी के जन्मोत्सव को धूमधाम से मनाया गया ।
भोपाल- मैत्रेय बुद्ध महाविहार,गोल्डन स्टेच्यू ऑफ बुद्धा चूना भट्टी द्वारा संत रविदास जी के जन्मोत्सव को धूमधाम से मनाया गया । इस अवसर पर पुण्यशील बौध्द ने गुरु रविदास का परिचय देते हुए कहा कि उनके पिता का नाम रघु था और माता का नाम रघुरानी था। बनारस के आसपास इनका रहना था।
इनका व्यवसाय मृत जानवरों की खाल उतारना था। इस व्यवसाय के कारण रघु को गांव-गांव घूमना पड़ता था । उनकी काफी उम्र हो चली थी, लेकिन कोई संतान न थी। इसलिए इस दांपत्य जीवन में भी दुखी थे । एक दिन रविदास जी के पिता सारनाथ नामक प्राचीन बौद्ध स्थल घूमने गए। यह स्थान बनारस से बहुत अधिक दूर न था। यह वही स्थान था, जहां महाकारूणिका बुद्ध ने बुद्धत्व प्राप्ति के पश्चात धम्मचक्र प्रवर्तन किया था और पंचवर्गीय भिक्खु संघ को प्रथम धम्मोपदेश दिया ।
इसी स्थान पर सम्राट अशोक ने धम्मेक स्तूप, धर्मपराजित स्तूप तथा देश का राष्ट्रीय चिन्ह 4 शेरों की मूर्ति वाला अशोक स्तंभ हैं। यहां पर कभी हजारों भिक्षु एक साथ रहा करते थे। रघु ने वहां “रैवतप्रज्ञ” नामक अर्हत बौद्ध भिक्षु को ध्यान साधना में रत पाया । रघु ने अपने धार्मिक स्वभाव के कारण भिक्खु के योग साधना स्थल की सफाई की और पीने के पानी की व्यवस्था की । ध्यानस्थ भिक्खु कई दिनों से भूखा था । आगंतुक की यह दशा देखकर उनके मन में सेवा-सुश्रुता की भावना जाग उठी क्योंकि वे कारुणिक प्रवृत्ति के थे। दूसरे दिन रघु अपनी जीवनसंगिनी के साथ पहुंचे और फिर पायस (खीर) सहित 'भिक्खु रैवतप्रज्ञ' को वैशाख पूर्णिमा के दिन भोजन कराया। इससे भिक्खु बहुत प्रसन्न हुए और दंपत्ति को मंगलकामनायें देकर अनुग्रहित किया । 10 महीने पश्चात माघ पूर्णिमा के दिन रघु के घर में एक तेजस्वी बालक का जन्म हुआ। अर्हत भिक्खु “रैवतप्रज्ञ” के नाम पर ही इस बालक का नाम
“रैवतदास” रखा जो कालांतर में अपभ्रंश होकर रैदास और फिर आजकल रविदास हो गया। इतिहास से प्राप्त हस्तलिपि और पांडुलिपियों में उनका नाम रैदास जो कि पाली भाषा का अपभ्रंश है रखा । आजकल इन्हें रविदास के नाम से जाना जाता है । वैसे तो डॉ. शुकदेवी जी ने 1475 ईसवी के आसपास इनका जन्म माना है जो कि सही भी लगता है कारण रविदास जी की साखियों में कबीर, सदना और सेन के मरने का प्रसंग मिलता है।
गुरु रैदास की शिक्षा के संबंध में जानकारी देते हुए पुण्यशील ने बताया कि– उस समय की मनुवादी व्यवस्था के कारण गुरु रविदास जी शिक्षा ग्रहण नहीं कर पाए किंतु उन्होंने अपनी परंपरा के किसी भिक्खु से जरूर ज्ञान अर्जित किया था। वह उस समय भगवान बुद्ध तथा उनके दर्शन से परिचित थे । इसके साथ ही उन्हें अपने समय में तीव्र गति से फैल रहे धर्म का भी ज्ञान था । यह बात स्पष्ट है कि जो व्यक्ति हिंदी,संस्कृत, ब्रज, अवधी,खड़ी बोली और पंजाबी जानता हो वह निरक्षर नहीं हो सकता। आज भी गुरु रविदास प्रकाश ग्रंथ के गुरुमुखी लिपि में रविदास जी की जन्म साखी मौजूद है जिसे उन्होंने स्वयं लिखा था । जिसके लिए दो फकीरों में झगड़ा हो गया था तथा लाहौर हाईकोर्ट के एक मुसलमान जज ने इस पर फैसला भी दिया था। इससे यह ज्ञात होता है कि उनका ज्ञान अत्यंत विशाल था ।
फिर उन्हें निरक्षर कहा जाए तो एकमात्र यहां संयोग ही कहा जाएगा। गुरु रविदास बौद्ध भिक्षुओं मुसलमान के मौलवियों और संतों के संपर्क में रहें परंतु उस चिंता में उन्होंने अपनी संख्या के बल पर ही अनुभव की कसौटी पर सार को चुना और उसका अनुसरण किया । ऐसा इतिहास में दर्ज है कि उनकी पत्नी अंत तक उनके जीवन में नहीं रहे ऐसी स्थिति में उन्होंने पत्नी के बिना ही जीवन को अपनाएं इस बात से स्पष्ट है कि उन्होंने जीवन में विवाह को कभी भी बोझ नहीं समझा ।
पीपुल्स मेडिकल कॉलेज के डीन डॉ. सदावर्ते ने कहा कि रैदास बुध्द की विचारधारा को पुनः स्थापित करने वाले बोधिसत्व थे । गुरुजी ने महिलाओं को उस जमाने मे धर्म मे दीक्षित किया जब वेद और मनुस्मृति महिला आजादी के खिलाफ थे । चित्तौड़ के रानी झालीबाई और मीराबाई गुरु रैदास की सत्संग वाणी से प्रभावित थे । इस अवसर पर भंते शाक्यपुत्र सागर द्वारा मन के शुद्धिकरण पर बल दिया। उन्होंने कहा कि - रैदास कहते हैं- 'मन चंगा तो कठौती में गंगा ।' और बुध्द भी मन के शुद्धि की बात करते हैं । इस अवसर पर दुलीचंद पटेल, आर.के ददोरिया ने भी अपने विचार रखे।